Dharm – क्या आप जानते हैं धर्म का सही अर्थ क्या है? अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाना…

भजन सागर प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपने अधिकारों के लिए जितना जागरूक होता है, बह कर्तव्यों के प्रति उतना ही उदासीन पाया जाता है। अपने कर्तव्य के लिए आम तौर पर लोगों के मन में टालने की प्रवृत्ति होती है। कर्तव्य को टालने का अर्थ है, धर्म से कट जाना क्योंकि कर्तव्य का ही एक नाम धर्म है। सीधे तौर पर कह सकते हैं कर्तव्य ही धर्म है। कर्तव्यों से बचकर धर्म या अध्यात्म के रास्ते पर नहीं चला जा सकता है, अध्यात्म की पहली मांग ही है कि कर्तव्यों की पूर्ति हो।

अपने फर्ज को हर हाल में पूरी निष्ठा के साथ पूरा करना ही व्यक्ति के लिये सच्चा धर्म है। यह सच है कि भक्ति के मार्ग पर चलकर भी आत्मज्ञान और ईश्वर प्राप्ति का लाभ उठाया जा सकता है, लेकिन सामने उपस्थित कर्तव्य को पूरा करने के बाद ही भक्ति या भजन-कीर्तन को उचित माना जा सकता है। इतना ही नहीं एक सच्चा कर्म योगी तो कर्तव्यों को ही प्रभु भक्ति बना लेता है। भक्ति से पहले फर्ज की वरीयता की घोषणा स्वयं भगवान राम भी करते हैं।

पहले ये समझें कि हमारा कर्तव्य क्या है? ऐसे सारे काम जो हमारे धर्म के पालन के लिए जरूरी हैं वे कर्तव्य के अन्तर्गत आते हैं। हम किसी के पुत्र है, पुत्र का धर्म या कर्तव्य है माता-पिता की सेवा करना और हम इस देश के नागरिक है, और एक भारतीय नागरिक धर्म है देश की रक्षा और उन्नति के लिए, उसमें सहयोग करना ही हमारा धर्म भी है और कर्तव्य भी। आधुनिक और वैज्ञानिक युग मेंं भी लोग अंधविश्वासों में डूबे हुए हैं। पूजा-पाठ, देव दर्शन जैसे कार्यों को ही धर्म मान लिया जाता है। जबकि धर्म शब्द की मूल जड़ों में जाकर देखें तो पता चलेगा कि कर्तव्य को ही धर्म कहा गया है। जो की हमारा सामाजिक तौर पर फर्ज है

उदाहरण – रामायण के एक प्रसंग को देखिए, रावण को मारने के बाद श्रीराम फिर अयोध्या लौट आए हैं। उनका राजतिलक किया हुआ था। राम अयोध्या के राजा बना दिये गए थे। राजतिलक में भगवान राम के सभी मित्र शामिल हुए थे। निषाद राज, जो कि आदिवासियों के राजा हुआ करते थे, वो भी आए थे। क्योकि उनके मन में भगवान राम के प्रति बहुत श्रद्धा थी। वे चाहते थे कि हमेशा अयोध्या में रहकर भगवान राम की सेवा करें। जब निषादराज ने अपनी यह इच्छा भगवान राम को जताई तो श्रीराम ने उन्हें समझाया। उन्होंने निषादराज से कहा कि मेरी शरण में रहकर, मेरी सेवा करने से तुम्हें उतना पुण्य नहीं मिलेगा जितना कि अपनी प्रजा की सेवा करते हुए मेरी भक्ति करने से मिलेगा। तुम्हारा पहला कर्तव्य प्रजा का पालन ही है क्योंकि तुम राजा हो और अगर तुम अपने कर्तव्य से हट गए तो मेरी भक्ति और सेवा का भी कोई फल नहीं मिलेगा इसलिए अपने धर्म को ध्यान रखते हुए उसको निभाओ।

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