जैसा की आप जानते हैं की आभूषण कितने ही कीमती या सुंदर हों, लेकिन एक वक्त के बाद उन्हें चमकाना जरूर पड़ता है। उन्हें केवल इस्तेमाल करने पर ही नहीं, रखे-रखे भी उनकी चमक फीकी पड़ जाती है। सोने को भी निखरने के लिए आग बर्दाश्त करनी पड़ती है। नग-नगीने भी पड़े-पड़े प्रभाव खोने लगते हैं। यही हाल इंसान के व्यक्तित्व और चरित्र का भी है।
प्रकृति ने दी है व्यक्तित्व संवारने की सुविधा
हमें हमारे व्यक्तित्व को कभी-कभी नहीं, बल्कि रोजाना मांजना चाहिये, क्योंकि हर सांस गंदगी और सफाई, दोनों की संभावना लिए भीतर-बाहर आती-जाती रहती है। सांस लेने का मतलब सिर्फ फेफड़ों में हवा भरना नहीं है। यह प्रकृति के प्राणतत्व को ग्रहण करती है। कुदरत ने हमें अपने व्यक्तित्व और चरित्र को संवारने के लिए सहज ही सुविधा दी है। फिर भी हम दोहरा जीवन जीने लगते हैं।
हम बाहर से प्रतिष्ठा और भीतर से पतन, ये दोनों ही अवस्थाएं हम एक साथ चला लेते हैं। जिससे लोगों के कंधे पर चढ़कर ऊंचा पद पाने वाले लोग भीतर से पूरी तरह गिरे रहते हैं। उनकी बाहरी प्रतिष्ठापूर्ण मुस्कान भीतर अशुद्ध विचारों से संचालित रहती है। लेकिन सच यह है कि ऐसा बहुत दिनों तक नहीं चल पाता। लोगों को तो धोखा दिया जा सकता है, पर स्वयं से छल कब तक करेंगे! इसलिए आपने आप को साफ सुथरा रखें
इस प्रकार हमें जीना चाहिए
कुछ समय बाद एक ऊब, उदासी और डर शुरू हो जाता है। अपनी ही छवि, प्रतिष्ठा स्वयं को ही डराने लगती है। इसीलिए बाहर-भीतर का भेद मिटाकर जिएं। बाहर की प्रतिष्ठा को भीतर के सद्चरित्र से जोड़कर रखें। आंतरिक पवित्रता बाहर कभी उदास नहीं रहने देगी। ध्यान रखें भीतर का मैलापन थोड़े दिन में ही बाहर के सुख को भी दुख में बदल सकता है।