Anmol Vachan – स्वामी रामदेव – जीवन भगवान की सबसे बडी सौगात (तोहफा) है ।

स्वामी रामदेव – जीवन भगवान की सबसे बडी सौगात (तोहफा)  है ।  मनुष्य का जन्म हमारे लिए भगवान का सबसे बडा उपहार है ।

जीवन को छोटे उद्देश्यों के लिए जीना जीवन का अपमान माना जाता है। इसलिए अगर हम अपनी आन्तरिक क्षमताओं का पूरा उपयोग करें तो हम पुरुष से महापुरुष, युगपुरुष, मानव से महामानव सकते हैं ।
मैं परमात्मा का प्रतिनिधि हूँ । और मेरे मस्तिष्क में ब्रह्माण्ड सा तेज, मेधा, प्रज्ञा व विवेक है ।

मैं माँ भारती का अम्रतपुत्र हुँ,  “माता भूमि: पुत्रोहं प्रथिव्या:” ।  प्रत्येक जीव की आत्मा में मेरा परमात्मा विराजमान है ।

मैं पहले माँ भारती का पुत्र हूँ बाद में सन्यासी, ग्रहस्थी, नेता, अभिनेता, कर्मचारी, अधिकारी या व्यापारी हूँ ।

“इदं राष्ट्राय इदन्न मम” मेरा यह जीवन राष्ट्र के लिए है । और  राष्ट्र के लिए कुर्बान कर देना चाहता हुँ।

मैं सदा प्रभु में हूँ, मेरा प्रभु सदा मुझमें है । और मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मैंने इस पवित्र भूमि व देश में जन्म लिया है ।

मैं अपने जीवन पुष्प से माँ भारती की आराधना करुँगा ।

मैं पुरुषार्थवादी, राष्ट्र्वादी, मानवतावादी व अध्यात्मवादी हूँ ।

कर्म ही मेरा धर्म है । कर्म ही मेरि पूजा है । और मैं मात्र एक व्यक्ति नहीं, अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र व देश की सभ्यता व संस्कृति की अभिव्यक्ति हूँ ।

निष्काम कर्म, कर्म का अभाव नहीं, कर्तृत्व के अहंकार का अभाव होता है ।

पराक्रमशीलता, राष्ट्रवादिता, पारदर्शिता, दूरदर्शिता, आध्यात्मिक, मानवता एवं विनयशीलता मेरी कार्यशैली के आदर्श हैं ।

जब मेरा अन्तर्जागरण हुआ तो मैंने स्वयं को संबोधि व्रक्ष की छाया में पूर्ण त्रप्त पाया ।

इन्सान का जन्म ही, दर्द एवं पीडा के साथ होता है । अत: जीवन भर जीवन में काँटे रहेंगे ।

उन काँटों के बीच तुम्हें गुलाब के फूलों की तरह, अपने जीवन-पुष्प को विकसित करना है ।

ध्यान-उपासना के द्वारा जब तुम ईश्वरीय शक्तियों के संवाहक बन जाते हो तब तुम्हें निमित्त बनाकर भागवत शक्ति कार्य कर रही होती है ।

बाह्य जगत में प्रसिध्दि की तीव्र लालसा का अर्थ है-तुम्हें आन्तरिक सम्रध्द व शान्ति उपलब्ध नहीं हो पाई है ।

ज्ञान का अर्थ मात्र जानना नहीं, वैसा हो जाना है ।

द्रढता हो, जिद्द नहीं । बहादुरी हो, जल्दबाजी नहीं । दया हो, कमजोरी नहीं ।

मेरे भीतर संकल्प की अग्नि निरंतर प्रज्ज्वलित है । मेरे जीवन का पथ सदा प्रकाशमान है ।

सदा चेहरे पर प्रसन्नता व मुस्कान रखो । दूसरों को प्रसन्नता दो, तुम्हें प्रसन्नता मिलेगी ।

माता-पिता के चरणों में चारों धाम हैं । माता-पिता इस धरती के भगवान हैं ।

“मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव” की संस्कृति अपनाओ!

अतीत को कभी विस्म्रत न करो, अतीत का बोध हमें गलतियों से बचाता है ।

यदि बचपन व माँ की कोख की याद रहे तो हम कभी भी माँ-बाप के क्रतघ्न नहीं हो सकते ।

अपमान की ऊचाईयाँ छूने के बाद भी अतीत की याद व्यक्ति के जमीन से पैर नहीं उखडने देती ।

सुख बाहर से नहीं भीतर से आता है । भगवान सदा हमें हमारी क्षमता, पात्रता व श्रम से अधिक ही प्रदान करते हैं ।

हम मात्र प्रवचन से नहीं अपितु आचरण से परिवर्तन करने की संस्कृति में विश्वास रखते हैं ।

विचारवान व संस्कारवान ही अमीर व महान है तथा विचारहीन ही कंगाल व दरिद्र है ।

भीड में खोया हुआ इंसान खोज लिया जाता है परन्तु विचारों की भीड के बीहड में भटकते हुए इंसान का पूरा जीवन अंधकारमय हो जाता है । बुढापा आयु नहीं, विचारों का परिणाम है ।

विचार शहादत, कुर्बानी, शक्ति, शौर्य, साहस व स्वाभिमान है । विचार आग व तूफान है साथ ही शान्ति व सन्तुष्टी का पैगाम है ।

पवित्र विचार-प्रवाह ही जीवन है तथा विचार-प्रवाह का विघटन ही मत्यु है ।

विचारों की अपवित्रता ही हिंसा, अपराध, क्रूरता, शोषण, अन्याय, अधर्म और भ्रष्टाचार का कारण है । विचारों की पवित्रता ही नैतिकता है ।

विचार ही सम्पूर्ण खुशियों का आधार है । और सदविचार ही सद्व्यवहार का मूल है । विचारों का ही परिणाम है हमारा सम्पूर्ण जीवन । विचार ही बीज है, जीवनरुपी इस व्रक्ष का जो हमारे जीवन को तय करता है।

विचारशीलता ही मनुष्यता, और विचारहीनता ही पशुता है पवित्र विचार प्रवाह ही मधुर व प्रभावशाली वाणी का मूल स्त्रोत है ।

अपवित्र विचारों से एक व्यक्ति को चरित्रहीन बनाया जा सकता है, तो शुध्द सात्विक एवं पवित्र विचारों से उसे संस्कारवान भी बनाया जा सकता है।

हमारे सुख-दुःख का कारण दूसरे व्यक्ति या परिस्थितियाँ नहीं अपितु हमारे अच्छे या बूरे विचार और कर्म की बजह से होते हैं ।

वैचारिक दरिद्रता ही देश के दुःख, अभाव पीडा व अवनति का कारण है । वैचारिक द्रढता ही देश की सुख-सम्रध्दि व विकास का मूल मंत्र है ।

हमारा जीना व दुनियाँ से जाना ही गौरवपूर्ण होने चाहिए । आरोग्य हमारा जन्म सिध्द अधिकार है ।

उत्कर्ष के साथ संघर्ष न छोडो! बिना सेवा के चित्त शुध्दि नहीं होती और चित्तशुध्दि के बिना परमात्मतत्व की अनुभूति नहीं होती ।

आहार से मनुष्य का स्वभाव और प्रक्रति तय होती शाकाहार से स्वभाव शांत रहता मांसाहार मनुष्य को उग्र बनाता है ।

जहाँ मैं और मेरा जुड जाता है वहाँ ममता, प्रेम, करुणा एवं समर्पण होते हैं ।

स्वधर्म में अवस्थित रहकर स्वकर्म से परमात्मा की पूजा करते हुए तुम्हें समाधि व सिध्दि मिलेगी ।

प्रेम, वासना नहीं उपासना है । वासना का उत्कर्ष प्रेम की हत्या है, प्रेम समर्पण एवं विश्वास की परकाष्ठा है ।

माता-पिता का बच्चों के प्रति, आचार्य का शिष्यों के प्रति, राष्ट्रभक्त का मातृभूमि के प्रति ही सच्चा प्रेम है ।

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