जैसा की सभी कहते हैं और हम देखते भी हैं की बुढ़ापे में सौंदर्य चला जाता है। शरीर की बात करें तो यह बिल्कुल सही है। जिस्म का नूर कोई बचा नहीं सकता। भले ही चाहे शरीर की जितनी देखभाल कर लो। तुलसीदास ने श्रीरामचरित मानस को भारतीयों के जीवन की आचार-संहिता बन गया है। घर-घर में इतनी पैठ शायद ही किसी और साहित्य की हुई होगी। उन्होंने जो बातें हमें सिखाई हैं उनमें एक बड़ी बात यह है कि बुढ़ापे का सौंदर्य आंतरिक प्रसन्नता है। जैसा की लोग वृद्धावस्था में भगवान को पाने से ज्यादा भुनाने का प्रयास करते हैं। लेकिन तुलसी कहते हैं वृद्धावस्था में सभी को सबसे पहले अपनी उदासी मिटाएं। क्योकि परमात्मा उम्र नहीं देखता। उसे तो आपके भीतर की मौज से मतलब है। जैसा की तुलसीदासजी ने श्रीरामचरित मानस अपनी वृद्धावस्था में ही पूरा किया था। उनके संतत्व ने घोषणा की कि मैंने अपने अंदर उतरकर जितना आनंद प्राप्त किया है उससे बहुत ज्यादा संसार में बांट दूंगा।
वृद्धावस्था की ओर जा रहे और वहां पहुंच चुके हैं तो सभी वृद्धा लोग यह विचार अपनाएं कि अब अधिकांश समय बच्चों के बच्चों को देंगे। आज मां-बाप इतने व्यस्त हैं कि बच्चों के लालन-पालन में कहीं न कहीं दादा-दादी, नाना-नानी, बड़े-बूढ़ों का स्पर्श होना जरूरी है। वे स्वीकार करते हैं कि उनकी सबसे बड़ी समस्या है बच्चों का लालन-पालन। इसे सुलझाने में वे ऊंट को घोड़ा बनाने जैसे तरीके आजमाते हैं। इससे चाल तो तेज हो जाती है, लेकिन कद छोटा हो जाता है। आज के माता-पिता, पति-पत्नी होकर एक-दूसरे की उलझन से बाहर ही नहीं निकल पाते हैं। अब एसी इस्तथी मै बच्चों के लिए ऐसे मां-बाप को देखना रिंग में दो बॉक्सर देखने जैसा हो जाता है। और वातावरण हिंसक हो उठता है। ऐसे परिवार में ही वृद्धावस्था की मौजूदगी से ही प्रेम और शांति का वातावरण हो सकता है।